Wednesday, July 18, 2007

Fire Burning in Tribal Youths of Chhattisgarh......

हम आदिवासियों की व्यथा की कहानी

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मैं दक्षिण बस्तर, दन्तेवाड़ा के एक आदिवासी परिवार का युवक हूं । मैं एकसामाजिक कार्यकर्ता हूं । सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते क्षेत्र मेंप्रत्येक किस्म के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक व अन्य बदलावों एवंहलचलों के विषय में जानकारी रखना एक मजबूरी है। मजबूरी इसलिए कि हम आदिवासियोंको बहुत सी चीजों को दिमाग में भरना पसंद नहीं है, परन्तु मेरे व्यवसाय कीआवश्यकता के चलते यह करनी पड़ती है।



वर्तमान में दक्षिण बस्तर, दन्तेवाड़ा एवंबीजापुर इन दोनों जिलों में जिस प्रकार की हृदय विदारक स्थिति निर्मित हुई है, वहमुझे अत्यधिक बेचैनी से भर देती है। मैं उसे एक व्यवसाय की नज़र से देखने मेंअसमर्थ पाता हूं, इसीलिए क्षेत्र में चल रहे इस संघर्ष के मूल तथ्यों पर अपनानज़रिया अपने आदिवासी भाईयों की व्यथा को गहनता से महसूस करते हुए इस लेख मेंप्रस्तुत कर रहा हूं ।यहॉ चल रहे खून से रंगरेज़ परिस्थितियों को जानने-समझने हेतु बहुत सेदेशी-विदेशी पत्रकार तथा समाज सेवक आते रहते हैं, इनमें से बहुत से आगन्तुकोंसे मुझे रूबरू होने का अवसर मिलता है।




उनमें से बहुत से मुझे बताते हैं किआदिवासियों के ज़मीनों पर कब्जा करने के लिए सलवा-जुडुम नामक यह लड़ाईराजनीतिज्ञों एवं उद्योगपतियों के द्वारा शुरू की गई है। मुझे उनसे यह भी जाननेका अवसर प्राप्त हुआ कि यह लड़ाई खनिज पदार्थों के लिए है, जोकि आदिवासियों केघरों के नीचे दफन है। यह सुनकर मुझे अपने लोगों पर दया आती है और सवाल उठता हैकि उन्होने अपने घर पहाड़ों पर क्यों बनाया हुआ है, जहॉ पर एक इंसान की जान सेभी ज्यादा कीमती खनिज गड़े हुए हैं, शायद पहाड़ों पर घर बनाने की ही सजा उन्हेमिल रही है? मैंने इस विषय में हमारे एक समाजिक कार्यकर्ता साथी, श्री हिमांशुकुमार जी से पूछा कि आदिवासियों ने पहाड़ों या जंगलों में अपने घर क्यों बनायाहै? तो उन्होने जवाब दिया कि आदिवासियों ने अपने मर्जी से इन पहाड़ों या जंगलोंमें अपने घर नहीं बनाया है, वे पहले उन्ही समतल जगहों पर अपने घर बनाकर रहाकरते थे, जहॉ आज सभ्य समाज के लोग रहा करते हैं और अपने व्यवसाय के विभिन्नसाधनों का विकास किये हुए हैं, उन्हे हम आर्यों ने उन ज़मीनों से खदेड़ा है।



उनकीइस बात को सुनकर मुझे लगा कि शायद यह बात मैंने कहीं और भी पढ़ी या सुनी है। जबमैं स्कूली शिक्षा ग्रहण कर रहा था, उन दिनों इतिहास के किसी पुस्तक में मैंनेयह पढ़ा था कि आर्य भारत में आज से सैकड़ों साल पहले भारत भूमि पर आए थे, वे अपनेजानवरों के लिए चारागाह की तलाश में यहॉ पर आए थे, फिर उन्होने देखा कि यहॉ मूलनिवासियों के पास बहुत ज्यादा और अच्छी ज़मीन है, जहॉ पर जानवरों को चराने मेंकोई दिक्कत नहीं होगी। यह कृषि युग की शुरूआत थी, जब आर्यों ने जमीनों पर कब्जाकरने के इरादे से आदिवासियों के साथ लड़ाईयॉ लड़ीं और उन्हे पहाड़ों का रास्तादिखाया तथा वे स्वयं इन ज़मीनों पर विभिन्न प्रकार की फसलों का उत्पादन कर आरामकी ज़िन्दगी जीने लगे तथा आदिवासी पहाड़ों और जंगलों में जाकर अपने परिवार के साथअनिश्चित ज़िन्दगी जीने लगे।अब कृषि युग अपनी अंतिम अवस्था में है।



इस दौरान सभ्य समाज के लोगों ने भूमिका इस तरह से दोहन किया है कि वह लगभग बंज़र हो चली है और वह कृषि के अयोग्य होगयी है। अब आया है औद्योगिक युग। औद्योगिक युग में अब सभ्य समाज को उनके चरमविकास के लिए चाहिए-खनिज अर्थात लोहा, टिन, बाक्साइट, हीरा, कोरण्डम इत्यादि, जोकिआदिवासियों के ज़मीन के नीचे दफन है और जब तक उनसे सौदे बाजी नहीं की जाती याफिर ज़बरन उन्हे उनके ज़मीन से बेदखल नहीं कर दिया जाता है, उनकी ज़मीन नहीं मिलसकती है। अब से कुछ कदम पीछ चलकर देखें तो हमें यह स्पष्ट रूप से पता चल जायेगाकि बस्तर में चल रहा खूनी संघर्ष वास्तव में ज़मीन के नीचे दबे खनिजों पर कब्जाकरने की लड़ाई है।



सलवा जुडुम के शुरू होने के कुछ समय पश्चात् जिले केदन्तेवाड़ा विकासखण्ड के धुरली एवं भान्सी ग्राम के ग्रामीणों की ज़मीनों कोएस्सार स्टील को देने के लिए शासन पुरज़ोर कोशिश करती है। डॉ विनायक सेन ने सबसेपहले यह बात कही थी कि सलवा जुडुम आदिवासियों से ज़मीन खाली करवाने का हथकण्डाहै, तो वे पुलिस द्वारा धर लिये जाते हैं और उन पर राज्य के काले कानून ''छत्तीसगढ़जनसुरक्षा अधिनियम*'' *के अंतर्गत कार्यवाही की जाती है। इसके अलावा सरकारबैलाडीला पहाड़ी के 14 निक्षेपों में से 2 निक्षेप क्र.1 एवं 2 को एस्सार एवंटाटा को बेच चुकी है, ये दोनों खदानें बीजापुर जिले के गंगालूर ग्राम के करीबहै, जहॉ पर वर्तमान में एक विशाल राहत शिविर का संचालन शासन द्वारा किया जा रहाहै, इस शिविर में वे ही लोग रहते हैं, जोकि इन खदानों के बीच में या आसपास केग्रामों में रहते थे।




जो लोग शिविरों में रह रहे हैं, उनसे ज़मीन खाली करवा लीगई है और जो लोग वर्तमान में अपने ग्रामों में किसी तरह से छिप-छिपाकर रह रहेहैं, उन्हे सलवा जुडुम और सुरक्षाकर्मियों के द्वारा फर्जी मुठभेड़ों में मार करज़मीन खाली करवायी जा रही है, जिससे कि जब इस ज़मीन का हस्तांतरण इन कम्पनियों कोकिया जाए तो उस समय किसी प्रकार की दिक्कत न हो। 31 मार्च 2007 को ग्राम पोंजेरके कुछ ग्रामीणों को सलवा जुडुम और सुरक्षाकर्मियों के द्वारा मार डाला गया, यहग्राम भी गंगालूर क्षेत्र के निकट का ग्राम है।हिमांशु जी कहते हैं कि यह आदिवासियों की अपने अस्तित्व को बचाने की अंतिमकोशिश है, यदि इस लड़ाई में आदिवासी जीत गये तो फिर उन्हे कोई भी कभी नहींछेड़ेगा और यदि हार गये तो उनका अस्तित्व मिट जाएगा। परन्तु ऐसा लगता है कि शायदइस लड़ाई के बाद बस्तर के आदिवासियों का अस्तित्व मिट जायेगा, क्योंकि वर्तमानमें इस लड़ाई के चलते हज़ारों परिवार के आदिवासी लोग घर से बेघर हो गये हैं, कुछआदिवासी परिवार आन्ध्रप्रदेश के वारंगल और खम्मम जिलों में जाकर रह रहे हैं औरवहॉ पर मज़दूरी करके अपने परिवारो का पालन पोषण कर रहे हैं।



जब हमारे एक सामाजिककार्यकर्ता साथी उनसे मिलने गये तो उन्होने बड़े दुखित होकर बताया कि किस तरह सेवे सलवा जुडुम एवं सुरक्षाबलों के लोगों के चलते अपना घर-बार छोड़कर भाग कर वहॉपहुंचे हैं, जबकि नक्सलियों के साथ उनका कोई लेना-देना ही नहीं था, बहरहाल वेअपने घर में ही रहना चाहते थे। इसी प्रकार बहुत से लोग अन्य प्रदेशों में भीचले गये हैं या फिर जिले के ही अन्य ग्रामों में जाकर रह रहे हैं और6,500 परिवारों के लोग शासन द्वारा खोले गये राहत शिविरों में अपनी जिन्दगी बिता रहे हैं एवंबहुत से परिवार के लोग अपने ही ग्रामों में रह रहे हैं एवं जब कभी भीसुरक्षाकर्मी एवं सलवा जुडुम के सदस्यों का दल उनके ग्रामों में जाता है तो वेसभी जंगलों में भागकर अपने जीवन की रक्षा करते हैं।




जब मैं इन्द्रावती नदी के पार के ग्रामों में गया था, तो उन्होने बताया कि हमेंयहॉ न तो चावल मिलता है और न ही कोई अन्य पदार्थ। लोगों को गड्ढ़ों से पानी भरकरपीना पड़ रहा है। उनके कपड़े बुरी तरह से फटे हुए हैं। उन्हे और उनके बच्चों कोबीमारी होने पर किसी प्रकार की दवाई नहीं मिलती है, इससे अनेक बच्चों एवंमहिलाओं की मृत्यु हो जाती है। वे जंगल से कन्दमूल इत्यादि इकट्ठा करके अपनाजीवन-यापन करते हैं। लोगों से चर्चा के दौरान पता चला कि यहॉ पर शुरूआत से हीशासकीय सेवाओं का अभाव रहा है, स्कूलों में अध्यापन करने वाले शिक्षक भीअनियमित सेवा देते थे, इसी प्रकार स्वास्थ्य की सेवा देने वाले एवं ऑगनबाड़ीकार्यकर्ताओं भी कभी-कभी ही आया करते थे, परन्तु वर्तमान में शासन ने इसक्षेत्र को नक्सली क्षेत्र घोषित कर अपनी सारी सेवाओं को बंद कर दिया है।



इसकेप्रमाणस्वरूप हमारे पास ग्रामीणों द्वारा तैयार किया गया पंचनामा एवं सहायुक्तआयुक्त, आदिम जाति विभाग, दक्षिण बस्तर, दन्तेवाड़ा द्वारा सूचना के अधिकार केतहत प्रदान की गई जानकारी है।शासन कहती है कि आदिवासियों ने माओवादियों का साथ दिया है, जबकि वास्तविकता यहहै कि इन दुर्गम क्षेत्रों में शासकीय सेवाओं की अनुपस्थिति ने माओवादियों कोआमंत्रित किया और उन्होने अपना बेहतर नेटवर्क इस क्षेत्र में तैयार किया। यदिशासकीय तंत्र इन क्षेत्रों में पहुंचा होता तो शायद माओवादियों के लिए अपनानेटवर्क तैयार करना इतना आसान न होता।बस्तर के आदिवासी शुरू से ही अशिक्षित रहे, अत: जागरूकता के अभाव में उनके पासकिसी भी प्रकार के सूझबूझ का अभाव रहा, अत: जिस किसी ने भी उन्हे जो कुछ भीसमझाया, वे उससे सहमत होकर उनके साथ हो गये। जब कभी भी कोई आदिवासी माओवादियोंका विरोध करता था या फिर उनके विचार से असहमत होता था, तो उसे वे मार डालते थे,ठीक उसी प्रकार की रणनीति पर वर्तमान में शासन कार्य कर रही है। क्या आदिवासीकी विवशता शासन के समक्ष स्पष्ट नहीं हो पा रही है या फिर कोई और बात इससे पहलेस्पष्ट हो चुकी है ?पहले इन आदिवासियों के पास माओवादियों के बन्दूकों के सामने शासन के साथ खड़ेहोने का कोई विकल्प नहीं था और जब सलवा जुडुम के रूप में उनके समक्ष विकल्प आयातो उनकी रोजी-रोटी का सवाल उनके सामने खड़ा था। अत: बहुत से लोगों ने इस सवाल केकारण से अपने ग्रामों में रहकर अपने जीवन-यापन के साधन को चुना परन्तु इनमें सेकुछ लोगों ने सलवा जुडुम के साथ खड़ा होना पसन्द किया और बहुत से लोगों को सलवाजुडुम के लोगों ने जोर ज़बरदस्ती अपने साथ कर लिया।



कुछ समाज सेवकों से मुझे यह भी पता चला कि क्रेस्ट नामक एक कंपनी कोदक्षिण बस्तर, दन्तेवाड़ा एवं बीजापुर जिले के ज़मीनों की सर्वे का ठेका मिला हुआहै कि कहॉ-कहॉ पर वर्तमान में कौन-कौन से खनिज हैं और इस संस्था का कहना है किअभी ज़मीन खाली हो रही है और ज़मीन खाली होने के पश्चात् वे अपना कार्य प्रारंभकरेंगे।आधुनिक समाज ने हम आदिवासियों के हितों के लिए कभी कोई लड़ाई नहीं लड़ी और न हीवर्तमान में लड़ रही है, वरन् राजनीतिज्ञों और उद्योगपतियों द्वारा आदिवासियोंके ज़मीनों को खाली करने के इस आर्थिक-राजनैतिक षडयंत्र को मौन होकर देख रही है।



रहा सवाल आदिवासियों की समझ का, तो उन बेचारों को अपनी आजीविका की चिन्ता से हीफुरसत नहीं मिलती कि अपने साथ हो रहे ज्यादतियों और उनके साथ होने वालीदुर्घटनाओं की संभावनाओं के विषय में सोचें। कुछ थोड़े से पढ़े लिखे आदिवासी भीहैं, वे या तो स्वयं को आदिवासी वर्ग से अलग समझने लगे हैं या फिर उनमें इनपरिस्थितियों का विरोध करने का माद्दा नहीं है और जो आदिवासी वर्ग के नेता हैं,उनमें से अधिकतर इसे कमाई का ज़रिया बनाये बैठे हैं। अनपढ़ आदिवासी शुरू से हीसताया जाता रहा है, इसलिए वह बहुत ही व्यग्र स्थिति में है कि उसके साथ ही ऐसाक्याें हो रहा है।



मेरा नज़रिया है कि जब तक प्रत्येक आदिवासी स्वयं को आदिवासी समुदाय का हिस्सानहीं मानता है और उसके लिए संगठित होकर कार्य नहीं करता है, तब तक उसके लिएवर्तमान में चल रहे संघर्ष से बाहर निकल पाना अत्यंत ही दुष्कर है।अब मैं उन लोगों पर आता हॅू जोकि पैसे के पुजारी बने बैठे है। मैं उनसे पूछता हूंकि क्या आदिवासी इंसान नहीं है या फिर क्या एक इंसान की जिन्दगी में पैसा ही सबकुछ है? राजनीतिज्ञ और उद्योगपति जब मेरे इन प्रश्नों को समझेंगे तो मुझ परहॅसेंगे, क्योंकि मैं उनकी स्थिति से भली प्रकार से वाकिफ हॅू कि इन लोगों केलिए पैसे का स्वाद ही जिन्दगी का सबसे बड़ा स्वाद है एवं इसके अलावा वे कोईदूसरा स्वाद ही नहीं जानते हैं।



प्रदेश एवं देश के प्रत्येक नागरिक, अधिकारी, राजनेता से मेरा अनुरोध है, चाहेवह आदिवासी हो या गैर आदिवासी, कि इस खूनी संघर्ष से आदिवासियों को बाहर निकलनेमें मदद करें। हम आदिवासियों के पास रूपया-पैसा नहीं है और वह सोच भी नहीं किअपनी समस्याओं के समाधान हेतु विचार कर, रणनीति तैयार उस पर कार्य करसकें, क्योंकिहमारी सोच का बहुत बड़ा हिस्सा पहले ही बिक चुकी है। छत्तीसगढ़ शासन के द्वारादक्षिण बस्तर, दन्तेवाड़ा एवं बीजापुर में चलायी जा रही सलवा जुडुम अभियानआदिवासी को खत्म करने की गहरी और आर्थिक-राजनैतिक साजिश है, जिसमें आदिवासीपूरी तरह से समाप्त हो जाएगा। इस विषय में आप सभी दखल देकर हमें इस षडयंत्र सेबचायें। इसके अलावा मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, माओवादियों से भी अपील करें किनिरीह आदिवासियों को बेवज़ह न मारें। हम आदिवासियों की पूरी जिन्दगी विकास केक्रम में भागते हुए गुजरी है, समतल ज़मीनों से उबड़-खाबड़ पहाड़ों पर खदेड़ा गया औरअब ये पहाड़ और जंगल भी छूट गये तो कहॉ जाएंगे , वहॉ जहॉ छत्तीसगढ़ सरकार हमें लेजाना चाहती है, सड़कों के किनारे ? आदिवासी तो ऐसी जगह रहने का आदी ही नहीं है, तोआदिवासी कुछ ही सालों में खत्म हो जाएगा और संग्रहालयों या शहरों के चौकों मेंसज जाएगा। ऐसा प्रयास पूर्व में आन्ध्र प्रदेश सरकार द्वारा किया गया था, परन्तुवहॉ का आदिवासी एक दशक भी नहीं जी पाया, उसका अस्तित्व ही मिट गया। हमआदिवासियों में भी जीने की लालसा होती है और हमने कभी किसी की ज़िदगी में कोईखलल नहीं डाला, परन्तु वर्तमान के हालातों में हमारी ज़िंदगी पूरी तरह सेनष्ट-भ्रष्ट हो चली है।



सभी लोगों की तरह हमें भी अपने घर में रहना है, अपनेबच्चे पालना है। हम इन पहाड़ों से मानव जीवन से भी अधिक मूल्यवान खनिजों को नहींनिकालेंगे। हमने अपना सब कुछ खोया है, अब ये पहाड़ और जंगल ही हमारा सब कुछ हैं,हम अपने घर में वापस जाकर रहना चाहते हैं, अब कम से कम हमें इन पहाड़ों से निकालबेघर मत कीजिए।

लिंगू मरकाम सामाजिक कार्यकर्ता

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