यह आलेख इस तथ्य को स्थापित करता है कि भारत में विकास और लोकतंत्र का लाभ छह दशकों के दौरान समूचे आदिवासी समाज को सबसे कम प्राप्त हुआ है और उसने सबसे ज्यादा गंवाया है. लेख में इस बात के साक्ष्य मौजूद हैं कि यह तबका दलितों से भी ज्यादा वंचित है. हालांकि, आदिवासी अपने असंतोष को लोकतांत्रिक और चुनावी प्रक्रिया के माध्यम से प्रभावी रूप से आवाज़ दे पाने में अक्षम रहे हैं, जबकि दलितों को यह मौका मिला है. आदिवासियों के संदर्भ में राज्य और समूचे राजनीतिक ढांचे की विफलता ने ही माओवादी क्रांतिकारियों को इनके बीच प्रवेश करने का अवसर और जगह प्रदान किया है. आदिवासियों के बीच नक्सली प्रभाव के कारणों की पड़ताल के बाद यह आलेख निष्कर्ष देता है कि आदिवासी भारत के मौजूदा दौर में दो त्रासदियों का शिकार बन कर रह गया है. पहली त्रासदी यह है कि राज्य ने अपने ही आदिवासी नागरिकों के प्रति अहसान भरा नज़रिया रखते हुए उपेक्षापूर्ण व्यवहार किया है, और दूसरी यह कि उनके संरक्षक माने जाने वाले नक्सलियों के पास भी उनके लिए कोई दीर्घकालिक समाधान मौजूद नहीं है.
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